ॐ हमने अपने जीवन में जो अनुभव किया है अब उन तमाम बातों पर क्रम से प्रकाश डालने की कोशिश करेंगें |
ज्योतिष का वास्तविक अर्थ नेत्र होता है --व्यक्ति धर्म -अधर्म को अपनी आँखों से सदा देखता -रहता है -स्थूल शरीर और मोह -माया का पाश इतना भयंकर होता है - जो सच पथ पर चलने नहीं देता है | निरन्तर भूल पर भूल करता रहता है --यद्यपि -सभी को ज्ञान का पाठ तो पढ़ाता है पर खुद छुपके से निरन्तर अन्धकार में जीता रहता है | --अस्तु -----अब हम 55 वर्ष के होने वाले हैं | कभी पुत्र था-- तो माता पिता और परिजनों के साथ चलने की तमन्ना रखता था | इस पथ पर चलता रहा -कभी माँ को कष्ट न मिले ,कभी पिता को कष्ट न मिले ,कभी -भाई -बहिन को कष्ट न मिले यही सोचता रहा | मेरे शरीर के हर अंग समर्पित रहते थे - चार भाई + -बहिन और माता पिता ही हमारा साम्राज्य था | घर में रोटी नहीं थी ,वस्त्र नहीं थे ,घर नहीं था ,कुछ जमीन नदी में समा गयी ,कुछ जमीन बेची गई दीदी की शादी के लिए ,कुछ जमीन गिरबी रखी गयी गौना के लिए ,माँ और दीदी खुद नहीं खातीं थीं पर पहला टुकड़ा मुझे मिलता था -मैं उस टुकड़े को अपने अनुज को देना पसन्द करता था | उस समय मेरा एक ही सपना होता था -मेरा परिवार कैसे अन्न -वस्त्र से सम्पन्न हो -मेरे घर में कोई बीमार होता था तो सिर्फ परमात्मा की दुआ या कृपा का ही सहारा होता था | --इतना गरीब मेरा परिवार जन्मजात नहीं था --मेरा जन्म राजयोग में हुआ था पर इसकी अवधि केवल 10 वर्ष थी | इन दस वर्षों में -पिताजी ने जमीन खरीदी ,बढ़िया दुकान चलती थी ,उपज उत्तम थी ,मामा मेरे यहाँ ही रहते थे | हम दोनों भाई पब्लिक स्कुल में पढ़ते थे --उस समय ऐसे स्कूलों का महत्व था | हमारा रहन -सहन उत्तम था | --पर ग्रहों के खेल निराले होते हैं ---मैं किसी के सहारे जीना नहीं चाहता था --अतः श्री महर्षि महेश योगी की संस्था में बिना पूछे माता पिता को चले गये पढ़ने --पातेपुर जिला वैशाली -बिहार -1981 में | -1982 में दीदी की शादी जमीन बेचकर हुई -मैं पातेपुर में था | इसके बाद मानों -रसातल जाने का योग शुरू हुआ --पातेपुर से 1982 में दीदी की शादी के बाद आया -वहां की शिक्षा छूट गयी | जमीन बिक गयी ,चोर दीदी के जेवर के साथ घर से सबकुछ ले गए | भोजन हेतु थाली भी नहीं बची | पिताजी नौकरी हेतु कलकत्ता गए --नाकाम होकर वापस आ गए | मुझे एक आश्रम में छोड़ आये --कभी सूद -बुध मेरी नहीं ली | अब मेरे माता पिता और परिजन मेरे आश्रम के लोग ही रहे | यहाँ जो मेरे साथ हुआ --उसका बखान क्या करूँ --अन्न -वस्त्र के लिए तड़प -तड़प कर मरते रहे | मुझसे शारीरिक इतना परिश्रम कराया गया --पहले भिक्षा मांगने की शिक्षा दी गयी ,फिर -50 लोगों का दोनों समय भोजन बनाना अनिवार्य था | इसके बाद गायों को चराना काम मिला -चप्पल नहीं होने के कारण -तलवों में गढ़े बड़े -बड़े थे --न औषधि न सहानुभूति थी | मैं परिजनों से दूर होकर नित्य मृत्यु को ढूंढा करता था --पर मृत्यु मिली नहीं | एक दिन ऐसा हुआ --मेरा अनुज सर्प दंश से दिवंगत हो गया ---गरीबी इतनी थी --कफन की जगह --एक चचेरे भाई ने अपनी लुंगी-तहमत खोलकर -उस शरीर को ढक दिया | -कर्ज लेकर अपने अनुज की आत्मा की शान्ति हेतु सभी संस्कार पूरे किये | --आगे की चर्चा अगले भाग में करेंगें | --भवदीय निवेदक खगोलशास्त्री झा मेरठ --जीवनी की तमाम बातों को पढ़ने हेतु इस ब्लॉकपोस्ट पर पधारें ---khagolshastri.blogspot.com

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