"मेरा" कल आज और कल -पढ़ें ?--- भाग -56-ज्योतिषी झा मेरठ
'आज मैं सनातन संस्तृति कितनी विस्तृत है -पर हमलोग करते क्या हैं ,जानते क्या हैं -प्रकाश डालना चाहता हूँ '--------- सबसे पहली बात जो सदियों से आजतक और आज से अनादिकाल तक चलने वाली पद्धत्ति -संस्तृति को ही वास्तव में सनातन कहते हैं | इसकी नींव इतनी मजबूत है लाख चाहने से भी कमजोर नहीं हो सकती है | धर्म का भावार्थ है जिसे हम आत्मा की बातों को सुनकर अमल करते हैं उसे धर्म कहते है | जिसे हम बुद्धि के द्वारा कार्य करते हैं या मानते है -उसे तर्क और कुतर्क कहते हैं --वास्तव में जिससे अपना भी हित हो एवं सभी का हित हो उसे ही धर्म कहते हैं | सनातन के नियमों के विरुद्ध जाना ही व्यक्ति के उपनाम जाति शब्द है --जैसे मुझे कईबार गुरूजी -कुपात्र ,मलेच्छ ,भ्रष्ट ,संस्कारहीन ,गदहा जैसे शब्दों से सम्बोधन करते थे --जब मैं कोई व्यवहार शास्त्र सम्मत न करके ,दिल से न करके, मन के अनुरूप करता था --इसे ही वास्तव में काम के अनुसार व्यक्ति की जाति समझी जाती है | जब मैं कोई सुन्दर कार्य गुरु या माता पिता के अनुरूप करता था तो --सुन्दर ,काबिल ,अच्छा, उत्तम ,मन प्रसन्न हुआ --जैसे शब्दों से आशीष मिलता था --वस्तुतः --उत्तम कार्य करने पर ही माता पिता गुरुजन आशीष प्रदान करते हैं --जिसे -यह बालक उच्च कूल का है ,खानदानी है ,संस्कारी है ,आदि -आदि --वास्तव में व्यक्ति के गुणों को दर्शाने वाले कर्मों को ही जाति जैसे शब्दों में पिरोया गया --किन्तु -ज्ञानी और अज्ञानी व्यक्ति --किसी भी बात को अपनी -अपनी क्षमतानुसार उसकी व्याख्या करते हैं --जिसे सनातन नहीं कहते हैं बल्कि इसे व्यक्ति की कपोलकल्पना कहते हैं | मैं जन्मजात ब्राहण परिवार से हूँ किन्तु मेरे पिता या मेरे खानदान में कोई भी पुरोहित के कार्य नहीं करते थे | मेरे पिता व्यापारी थे --पर कालचक्र के कारण मैं अति दरिद्र हो गया | मेरी शिक्षा एक आश्रम में हुई -वहां के आचार्य दक्ष और निपुण थे उनके संस्कार मुझ में आये --अतः मैं व्यापार नहीं कर्मकाण्ड और ज्योतिष की दुनिया में आया | धर्म का आचरण करने वाले लोग भले ही कुछ देर के लिए भटक जाय पर बहुत जल्दी उसी परिबेश में आ जाते हैं | मैं एक शिक्षक बनना चाहता था ,कर्मकाण्ड या ज्योतिष से एक पीढ़ी खुशहाल हो सकती है किन्तु दूसरी पीढ़ी नष्ट या निकम्मा हो जाती है --क्योंकि जीवन जीने के लिए एक आचार्य दक्ष होते हुए भी गलत कार्य करे या झूठ से जीए -तो दण्ड भी मिलता है | संतान संस्कृति में -ज्यादातर जो दक्ष आचार्य रहे अपनी संतानों को ज्ञानी और धार्मिक बनाये | -------पर वर्तमान समय में ज्यादातर दक्ष आचार्य इसलिए नहीं है --क्योंकि विशेषतर जजमान ही अल्प ज्ञानी और अभिमानी हैं | धन है पर धर्म नहीं है ,धन है पर दया नहीं है ,धन और बल हैं इसलिए --इसलिए -जजमान आचार्यों के अनुसार नहीं होते हैं बल्कि आचार्य इनके अनुसार होते हैं | ऐसा होने पर किताब भी इनके अनुसार बनती है ,पंचांग कोई आचार्य नहीं जजमान बनाते हैं ,मन्दिर का सञ्चालन कोई आचार्य नहीं करते बल्कि वही जजमान के अनुसार होता है | परिणाम -भ्रष्टता बढ़ती जा रही है | सभी आचार्यों की संतान उसी पथ पर चलती है --जिस पथ पर केवल धन तो आये धर्म की कोई जगह नहीं होती है | सभी मठों पर ,आश्रमों पर ,आचार्यों पर ,संस्कृत के विद्यालयों पर जजमानों का ही अधिकार रहता है --धन के बिना कुछ चलता नहीं है | --अतः धन का आगमन ज्यादा हो धर्म केवल मुहर के लिए होता है | ऐसा नहीं है मैं कोई दूध का धुला हूँ --पर हमने गरीबी की वजह से ज्योतिष +कर्मकाण्ड को अपनाया | इतना तो धन प्रभु ने दिया है जिससे अपने बालक को सही दिशा दे सकते हैं --यह सोच सबकी हो जाय तो सनातन होगा --अन्यथा धन तो आता रहेगा --चाहे जजमान हों या पुरोहित --सिद्धांतों के विपरीत कोई चलेंगें तो न तो अपना भला कर पायेंगें न ही जग का भला करेंगें | -----आगे की चर्चा आगे करेंगें -----ॐ आपका - -खगोलशास्त्री ज्योतिषी झा मेरठ---ज्योतिष और कर्मकांड की अनन्त बातों को पढ़ने हेतु या सुनने के लिए प्रस्तुत लिंक पर पधारें -https://www.facebook.com/Astrologerjhameerut

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें